बुधवार, 31 जनवरी 2007

फिर..

 फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की
बेड़ियों को तोड़ आगे बढ़ चला चंचल ये मन 
फिर अचानक साँझ लौटी सुरमई संगीत की...
फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की..

मिल गया विराम जो अविराम चलते द्वंद्व को
उड़ी फिर तितली रिझाने पुष्प को मकरंद को
मिली फिर शब्दावली मेरे निराले छ्अंद को
कर चली जादू सभी पर ये ऋतु फिर शीत की..

गूँजती हैं फिर किलोलें कोयलों की बाग में
गा रही जैसे ताराने फिर नये इक राग में
पा चली विधि से ये वार जैसे वो अपने भाग में
आँख मूंदें और पा लें ्छ्वी अपने मीत की

बाही फिर धारएं अविरल हर तरफ़ उल्लास की
जी उठी फिर हरित हो कर शुष्क डाली पास की
ख़त्म हो गई जो अवधि राम के वनवास की
मिल गई जैसे हो सीता आस्था में प्रीत की..

 

1 टिप्पणी:

Manasi ने कहा…

its been long since i got ur feel...

phir se komal pankh pasaare ud raha ek khwab hai,
phir se kanth ke bahar aaya hriday ka ik raag hai,
phir se ashru chalka hai, hothon pe hain muskaan si,
phir mili hai mujhko 'ruchi', mere ik armann si !