गुरुवार, 30 जुलाई 2015

abhimaan

अभिमान

जो आ सकती इस दुनिया में, अपने बेटे की गाथा को
गौरव को , और अभिमान को , कह कविता में बतलाती मैं

जो छू सकती , दोनों हाथों को लगा तुम्हारे माथे पर
दे दे दुआएं दे न थकती , जो आज तुम्हें फिर पाती मैं

जो ले सकती, तो ले लेती सारी बलाएँ - बाधाएं
इक इक मुश्किल का पल , तुम्हारे तमगे खुद लगाती मैं

जो देख सकती, तो घंटों, पहरों , सप्ताहों तक केवल
मैं देखा करती बस तुमको और कह कुछ भी ना पाती मैं

जो कर सकती , अपनी पलकों को बिछा तुम्हारे पैरों में
बहते अश्रु मेरे अविरल , हर  छाले को सहलाती मैं

इक ऐसा मेरा बेटा है , गौरव में जिसके जीती हूँ
गर होती तो ये कह कह के बस फूली नहीं समाती मैं

जो पा सकती ,  तो ले लेती  इक जन्म और इस धरती पर
कह  ईश्वर से तुमको ही फिर से पुत्र रूप में पाती मैं


देश, मम्मी और हम सब को आप पर गर्व है
देश वापसी पर स्वागत, बधाइयाँ और सम्मान!

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

बंटवारा

आओ देश का बंटवारा करें..
एक बार फिर थोडा रक्त बहाएं
इस बार छोटे छोटे टुकड़े करें
और आपस में बाँट लें
बाँट क्या लें, छीनें , झपटें , झल्लाएं
थोडा "मेरा" "मेरा" चिल्लाएं
और अपने हिस्से कि आज़ादी का जश्न भी मना लें..

अब देखें किस के हिस्से क्या आया है
अब नए नियम क्या लागू हैं
एक राष्ट्र में  कई राष्ट्र हो चले..
सौ राष्ट्र हो या महा राष्ट्र
चलो अब हवा भी बाँध लेते हैं,
और नदियों पर थोड़ी और बंदिश लगा लें
हर जगह दीवारें, दहलीजें, और बाड़ें
ना हों तो जंजीरें हो तो तलवारें

अब सोचें कि बचा क्या है
क्या ज़मीर? देश प्रेम? अपराध-बोध जिंदा हैं?
 या उन्हें भी जला चुके हैं हम अँधेरे की आग में..
हाँ आग अँधेरे की
अँधेरा लाचारी का
लाचारी अनभिज्ञता की
अनभिज्ञता इस बात की,
कि हम सब दोषी हैं..
कि हम एक हो कर न सोच पाए..
कि क्यों हमारी निर्णायक
एक कुर्सी है.. एक टोपी है..

मंगलवार, 30 जून 2009

साँस

एक साँस लौटी, कुछ देर ठहरी , कुछ सकुचाई..
खिड़की के छज्जे पर थोडा सा अलसाई..
अलाव को तापने फिर भीतर चली आई..
कहाँ अकेली फिर, बिछौने पर खेली फिर
नींदों के झोंकों से पकड़म पकड़ाई
किरणों के सपनों में जम्हाई-अंगड़ाई॥
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यह कविता मेरी प्रिया सखी प्राजक्ता की एक छोटी प्यारी कविता को पढने के बाद मैंने लिखी॥
आप चाहें तो प्राजक्ता की कविता यहाँ पढ़ सकते हैं : http://manaskruti.blogspot.com/2009/03/blog-post.html