सोमवार, 17 दिसंबर 2007

उनके लिए..

हंसी मैं , पिघल के मेरे ग़म सारे बह गए..
किया क्या, कि इस पल में बस हम ही रह गए..
हर इक शै में जो समां था, मेरा हो गया..
दे दिया जहाँ मुझको ,ये क्या वो कह गए..

तेरे बिन जो बीते दिन हैं,जाने किस तरह गए
फुरकत तेरी ये जाने, हम कैसे सह गए...
क़त्ल भी कर देते तो किस्सा तमाम था..
तेरे हाथ से जो बिखरे, मौसम वो रह गए..

बुधवार, 3 अक्तूबर 2007

आ तुझे कोई नाम दूँ..

घुल जाये जो कानों में..
एक हो सब जहानों में..
ना हो किसी का जैसा..
आ तुझे कोई नाम दूँ..


अकेली,प्यारी सूनी सी..
रमी हुई जो धूनी सी..
साथ को तरसे नहीं जो..
आ तुझे कोई शाम दूँ॥
तुझे कोई नाम दूँ..

शनिवार, 1 सितंबर 2007

लड़का था एक विजय नाम का

लगता नहीं है कि इतने साल बीत गए,
मेरी यह रचना उस समय कि है जब में ग्यारहवी कक्षा में पढ़ती थी।






अपने अस्तित्त्व का श्रेय अपने जन्मदाता को देता हूँ,
परंतु अपनी योग्यता का श्रेय अपने शिक्षक को देता हूँ

कोई तेज़ हवा का झोंका जब साथ तुम्हें ले जाये
सही राह से मोड़े तुमको गलत रह भात्काये
ऐसे में जो हाथ पकड़ कर साथ तुम्हें ले आये
शिक्षक वही कहलाये सदा ही उचित राह दिखलाये

लड़का था एक विजय नाम का
जो था बिल्कुल नाकारा
कहने को बस नाम विजय था
हरदम लेकिन था हारा

कक्षा में पढने लिखने में लगता नहीं था उसका मॅन
शिक्षक शुभचिंतक सहपाठी लगते थे उसको दुश्मन

ऐसा नहीं कि नहीं समझ में उसको कुछ था आता
पर फिर भी वह कहता रहता समझ स्वयं को ज्ञाता..

पढ़ लिख कर के देखो तुम सब
जीवन में क्या पाओगे
समय यही है मजे मौज का
इसे bhi संग गंवोगे

हमने टोह अपने जीवाब में
उसूल यही अपनाया है
और भला पढने लिखने से
नवाब कोई बन पाया है??

सहसा इक दिन जब अध्यापक
कक्षा के अन्दर आये
उक्ति ऐसी सुन कर कानों
पर विश्वास ना कर पाए

है जिस बच्चे के अन्दर हर कार्य को करने कि क्षमता
उस बच्चे की जीवन में है कलुषित ये वैचारिकता??

कक्षा में तो कुछ ना बोले
पश्चात विजय को बुलवाया
और प्रेम से दया दृष्टि कर
उसको ये सब समझाया

देखो हमें एक जीवन में
मिलता है बस एक ही मौका
स्वयं सिद्ध ना बन पाया
जो भी ये मौका चूका

इस मौक़े को मत चूको
मत समाया को व्यर्थ गंवाओ
समय कभी ना वापस आता
आज जान ये जाओ

गलती अपनी आज ही समझो
कल तक जो रूक जाओगे
समय रेत सा फिसल जाएगा
तुम पीछे रह जाओगे

पछताने से तुम ही बोलो
क्या होगा तुमको हासिल
क्या जाने किस पाथ पर भटके
ना मिल पाएगी मंज़िल

बोला विजय कि उसे हो गया
अपनी गलती का एहसास
पूरी म्हणत से वो करेगा
अपनी क्षमताओं का विकास

अध्यापक बोले कि ग़र तुम
मुश्किल में खुद को पो
बिना डर और बिना झिझक के
मेरे पास चले आओ

करके अपनी बात यह पूरी
विजय के सिर पर रखा हाथ
माम्तामी थे वो अध्यापक
अनुशासनप्रिय होने के साथ

बस इस दिन से विजय ने बदले
अपने तौर तरीके
उसने आगे बडे के गुर
अध्यापक से सीखे

विजय था अब जान गया
सही गलत में अंतर
परीक्षा की तयारी
भी की थी उसने जम कर


अच्छे अंकों से आया था
वह कक्षा में अव्वल
अध्यापक के ही कारण थी
उसकी हर मुश्किल हल

बदले हुये विजय से अध्यापक को थी संतुष्टि
उसकी विजय ने कि थी अध्यापक के श्रम कि पुष्टि

विजय ने अब महसूस किया
क्या होता उसका हाल
अगर ना होते अध्यापक,
वह चलता टेढ़ी चाल

होती ना जो आपकी छाया
क्या मैं ये कर पाटा
गलत राह पर, पतन गर्त में
खुद ही गिरता जाता

आपकी आंखों में थी कबसे
निर्मल प्रेम कि छाया
मन में था सैलाब दया का
मैं थोडा ही पढ़ पाया

मेरे मन में बन बैठा है
आपका सबसे उंचा स्थान
आपके धीरज ने रखा
मेरे हर ध्येय का ध्यान

हल हर मुश्किल को करने
थे आप हमेशा तत्पर
भूल ना पाउँगा जीवन भर
ये एहसान है मुझपर

हर रिश्ते से ऊपर है ये
गुरू शिष्य का नाता
मेरी हर उपलब्धि का है
श्रेय आपको जाता

अपनी उपलब्धि को तुम
नहीं समझना कोई कर्ज़
लाना तुमको सही राह पर,
मेरा था यह केवल फ़र्ज़

जीवन की अगली राहों में
आगे को जब जाना
अटल ही रहना उद्देश्यों में
कभी ना डगमगाना

फ़र्ज़ ये मेरा अब है तुम्हारा
इसे है तुम्हें निभाना
और किसी भूले भटके को
सही राह दिखलाना॥

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2007

पैबंद ...



साँस लेने को हवा भी है तरसती;

प्यास से व्याकुल औ' बदली है बरसती;

है जहाँ पर नहीं कोई पासवाँ ,

जी रहा है एक मुट्ठी आसमाँ...


ये छायाचित्र भी एक झोंपड़ी के भीतर से (मेरे द्वारा ) लिया गया है 

एक झोंपड़ी के भीतर...



कुछ टिम-टिम उजाले,
हैं इसको संभाले,
वैसे तो यहाँ पर अंधेरा घना है..
इक चौके का कोना,
इक छोटा बिछौना,
और आशाओं से घर ये मेरा बना है..

ये छायाचित्र भी एक झोंपड़ी के भीतर से (मेरे द्वारा ) लिया गया है 

रविवार, 18 फ़रवरी 2007

जा रही रवि की सवारी..


किरण राथ धुंधला पड़ा है

नभ ज्यों तारों से जडा है

इसी नभ की स्वर्ण आभा पर रजत अब पड़ी भारी

जा रही रवि की सवारी



पाने को जो खड़े थे सुख

अब खड़े हैं फेर के मुख

भूल कर इस ही रवि की आरती भी थी उतारी

जा रही रवि  की सवारी



लो गमन का अब समय है

किंतु ये होना भी तय है

सुबह आने को पड़ी है रात कारी अब ये सारी

जा रही रवि की सवारी

This poem is inspired from

aa rahi ravi ki savari..


 

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2007

आँसू...

हुआ यूँ की जो भी देखा सब नम नज़र आया
ज़मीन पे दर्ज सीलन था शाम का साया
गीली रही थी चाँदनी था कितना सुखाया
सिल्ली सा बर्फ़ चाँद पिघलता हुआ पाया
सीली रात के छीटंों को पोंछ दिन चला आया
बरसता हर एक लम्हा बकाया था चुकाया
गला रुंधा ;टूटा था , कैसे कैसे दिल ये भर आया
पलकें जहाँ झपकी वहीं आँसू छलक आया..

यादें..

सुनसान रहें,रास्ते के पत्थर,
उड़ते पंछी,पीछा करता चाँद
टूटे फूल ,वो मुलाक़ातें ..
बस यादें

बोलती ख़ामोशी,चलते क़दम,
अनोखे अंदाज़ ,परिचित से वक्तव्य
वही प्रश्न,अपूर्ण बातें ..
अधूरी मुरादें..

अनदेखे ख्वाब,अनजाने राज़..
सुना सा शोर,पढ़े हुए पुर्ज़े,
गिरते हुए पर्दे, अनोखी रातें,
कुछ कर ना दें..

नाम सी आँखें, बहते आँसू..
ढहते स्वप्न,डूबती कश्ती..
कौन सा तूफ़ान, कैसी बरसातें..
ये फ़रियादें..

यादें..

जवाब

ये मैने कहा कब

कि हो मेरे हक़ में

तुम्हारे पास कोई

"जवाब" तो हो..

 

क्यूं कहते हो उससे??

आज मैने चाँद को देखा..

या ये कहा जाए की वो फिर से मुझे दिख गया..

आज कुछ उदास था..

कुछ कुछ पीला सा..

पूछने पर कि "क्या हुआ ?"

कुछ कहा भी नहीं!

हाँ , वैसे भी..

मुझसे कहाँ कुछ कहता है वो..

.. तुम ही ने कहा होगा..



अब रहेगा ऐसे ही मुँह फुलाए

ना अपनी कहेगा, ना तुम्हारी सुनाएगा

बस चलता रहेगा चुपचाप

क्षितिज पर ,मेरे साथ..

इस छोर से उस छोर तक

फिर बिना कुछ कहे गुम हो जाएगा..

... तुम ही ने कहा होगा..



तुम्हारा हाल कह सकता है है वो..

दिखावा करता है है मेरे सामने..

जलाता है मुझे ये जता कर

कि तुम्हें देख सकता है

परेशन करता है मुझे चुप रहकर..

मुझे नहीं बताएगा मैं जानती हूँ..

.. तुम ही ने कहा होगा..

क्यूं कहते हो उससे??
 

बुधवार, 31 जनवरी 2007

फिर..

 फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की
बेड़ियों को तोड़ आगे बढ़ चला चंचल ये मन 
फिर अचानक साँझ लौटी सुरमई संगीत की...
फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की..

मिल गया विराम जो अविराम चलते द्वंद्व को
उड़ी फिर तितली रिझाने पुष्प को मकरंद को
मिली फिर शब्दावली मेरे निराले छ्अंद को
कर चली जादू सभी पर ये ऋतु फिर शीत की..

गूँजती हैं फिर किलोलें कोयलों की बाग में
गा रही जैसे ताराने फिर नये इक राग में
पा चली विधि से ये वार जैसे वो अपने भाग में
आँख मूंदें और पा लें ्छ्वी अपने मीत की

बाही फिर धारएं अविरल हर तरफ़ उल्लास की
जी उठी फिर हरित हो कर शुष्क डाली पास की
ख़त्म हो गई जो अवधि राम के वनवास की
मिल गई जैसे हो सीता आस्था में प्रीत की..

 

धुआँ

कहाँ से ये धुआँ
उठता है इस वीराने में
मैने ना जाना
बस सोचती रहती हूँ हरदम
कि इसकी वजह क्या है ...

पास की भट्टी की दहक ??
पर उसे बुझे तो बरसों बीत गये
नज़दीक की बस्ती में लगी आग??
पर उसे तो लोग परसों रीत गये

पड़ोस के घर का चूल्हा?
पर वो कब ही का बुझ चुका..
बगल में पड़ी अंगीठी??
पर उसका ईंधन तो कब का फूँक चुका..

फिर कहाँ से उठता है धुआँ इस वीराने में
सोचो ज़रा कि इसकी वजह क्या है

हिंसा को सप्रेम...

एक और धमाका कुछ मौतें और धू धू कर के जलते घर

एक और तमाशा बंदूकें -बम तलवारें और कटते सर



दृश्य पटल पर रंग बदलता है भगवा तो कभी हरा

रंग परंतु लाल लहू का नहीं बदलता कभी ज़रा



कहाँ गया वो जो धी क्करा करता था.. हाँ अंतरमंन

कहाँ गया ईमान धर्म और सुप्त हो चली हर धड़कन

नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे तख़्त ओ ताज बनेंगे

नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे किस पर राज करेंगे



दहशत की आँधी में या फिर गर्दिश के अंगारों में

कर्म भूमि या रणणभूमि में गोली की बौछारों में

लाचरों मासूमो अन्जानों ने अपनी बलि जहाँ दी

मैने भी अपनी एक कविता, इस हिंसा को भेंट चढ़ा दी



भेंट चढ़ाई थी इस आशा में की होगा कुछ बदलाव

पर इतने बलिदानों में , छोटी इस कविता का क्या है भाव



हिंसा जो कल तक बस ज़र्रा थी, अब वसुंधरा व्योम हो चली

हिंसा के इस महा य ज्ञान में ये कविता भी होम हो चली



 

बहुत कुछ करने के सिवा; बहुत कुछ करने के लिये

सोचते हो क्या है करना अब हमें रह कर यहाँ

और बहुत काम हैं ज़िंदगी जीने के सिवा

और बहुत काम हैं इस दौर में करने के लिए...



रो के तो करता हर कोई ग़म अपना यूँ ही बयान

और बहुत काम हैं छुप छुप के यूँ रोने के सिवा

बहाने हैं बहुत ग़म छोड़ के हँसने के लिए..



ढूंढते हो मिट गये से ख़ुद के क़दमों के निशां?

और बहुत काम हैं यूँ राह भटकने के सिवा..

तरीक़े हैं बहुत मंज़िल को पहुँचने के लिए..



क्यूं तुम्हें अनजान पराई भीड़ सा लगता जहाँ..

और बहुत काम हैं अकेले यूँ ही रहने के सिवा

रास्ते हैं बहुत अपनों को खोजने के लिए..



 

ए ज़िंदगी तू ही बता ...

जिसे पाने उमर भर, तरसती रही है नज़र

दिखला के बस इक झलक,यों झपकते ही पलक

क्यूं हो जाता है जुदा...

ए ज़िंदगी तू ही बता...



फिर नयी रातें हैं , नये सपनों की बातें हैं

लगता है जो कुछ अपना, उन्हीं सपनों में एक सपना..

क्यूं है तड़क कर टूटता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...





खा कर रहम नसीब, आ कर ज़रा क़रीब, देता है एक पल का सुख..

पर अगले पल तो है फिर दुख

ऐसी क्या हुई है मुझसे ख़ता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...





सपने भी हैं और चाह भी मंज़िल भी है और राह भी..

आगे बढ़ के एक क़दम, पाँव क्यूं जाते हैं थाम

मुझे ख़ुद भी नहीं है पता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...



 

ख़ौफ़..

 है हक़ीक़त है मुझे ख़ौफ़ तुझे खो ना दूं..
हमसफ़र बन के हर सफ़र में सदा तू चलना..

हमसफ़र भी यूँ ही होते हैं कभी साहिल पे
तन्हा तूफ़ा में हमें छोड़ के आ ज़ाए तो
मिन्नत ये है की हमसफ़र ना बनना तू..
बन के साया ही खुदाया संग में तू चलना..

वक़्त हम पे अगर ऐसा भी कभी आए तो
राह में छोड़ के साया भी चला जाए तो..
गुज़ारिश है ना बनना तू कभी हम साया
धड़कनें बन के मेरे दिल में सदा तू रहना..

दिल भी दिल है इसे भी मौत कभी आएगी..
धड़कनें मेरी किसी पल तो थम ही जाएँगी..

काश ऐसा हो मेरा ख़ौफ़ ही खो जाए कहीं
खो जाए यही ख़ौफ़ तुझे खो ना दूं...


अध्याय

लो बीत गया एक संपूर्ण अध्याय

चौदह वर्ष तक जो निरंतर किया

अब कभी नहीं करेंगे फिर..

अलसाई सुबहों में ख़ुद को ढालना..

बस्ते के बोझ दबी सयकले घसीटना

घंटी की आवाज़ सुन क़तारों में खड़े हो जाना..

झाँकना वो प्रार्थना के लिए बंद आँखों से..



मुझे दे दो..



मुझे वापस दे दो मेरा स्कूल..

मुझे दिला दो वो बीते साल..

वो प्रार्थना सभायें ,गीत , सुर, ताल..



क्या लौटा सकते हो वो पल?

शायद नहीं..

कभी नहीं..



बीते क्षण लौट कर आ भी तो नहीं सकते..

हाँ यादों में ज़िंदा तो रह सकते हैं वे



मुझे याद है अब भी स्कूल का वो पहला दिन ..

जब मैने अपने आप को इस नई जगह पाया

इसे जाना और साथ ही सीखा स्वयं को पहचानना

और मेरी पहचान का एक महत्वपूर्ण भाग बन गया यह

और अब इसी पहचान को साथ ले..

एक और पहचान की खोज में

इसे छोड़ के जाना है



क्या हुआ जो बीत गया एक अध्याय.. एक शुरू भी तो हुआ है

हुआ है ना...