खिज़ा में सूख बैठा कल चमन था बाग जो सारा
बहारों के जो फ़िर मौसम अगर लौटे तो क्या लौटे..
सभी कुछ हार बैठे ज़िन्दगी के खेल में जब हम
मौके जो ले के ग़म अगर लौटे तो क्या लौटे..
मिटाया वक्त ने जो कुछ लिखा था शक्ल पर मेरी..
नई सूरत को ले कर हम अगर लौटे तो क्या लौटे
झुका करती थीं पलकें सिर्फ़ जिनके नाम को सुन कर..
दर पे यूँ उनके बेशरम लौटे तो क्या लौटे ॥
कहानी लिख ही डाली जब तलक किस्मत ने पूरी ये
खुदाया नई ले कर तब कलम लौटे तो क्या लौटे..
बोटियाँ नोच डाली जहाँ श्वानों-चील-कौवों ने,
लगाने तुम वहाँ मरहम अगर लौटे तो क्या लौटे॥
लौटे थे जिनको ढूँढने को साथ लेने हम ,
किसी के हो चुके हमदम अगर लौटे तो क्या लौटे॥
पुकारा जिन्हें हमने ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी कह के,
मनाने वो मेरा मातम अगर लौटे तो क्या लौटे॥
मंगलवार, 18 नवंबर 2008
बुधवार, 12 नवंबर 2008
हर रोज़
हर रोज़ शुरू करती हूँ एक नई ग़ज़ल..
और छोड़ देती हूँ उसे अधूरा
कोरे पन्नों के बियाबाँ में
जहाँ वोः बढ़ना चाहे तो ख़ुद में सिमट कर रह जाए
एक बीज बोती हूँ धरती का सीना चीर कर
और छोड़ देती हूँ उसे अकेला
जहाँ न खाद न पानी हो,
हो तो बस चिलचिलाती धूप और धूल और धुंआ
एक ख्वाब देखती हूँ और आँख खोल लेती हूँ
तोड़ देती हूँ उसे ख़ुद ही
और फेंक देती हूँ उसे कूडे के ढेर पर
जहाँ उसे कोई पहचान न पाये
एक तीली जलाती हूँ माचिस की
और दे देती हूँ उसे सब कुछ
चिंगारी बढ़ कर लपटें बन
भस्म कर देती हैं...
कुछ अधूरी गज़लें..
कुछ अधफूटे कोंपल..
और टूटे हुए ख्वाबों के टुकड़े..
और फ़िर राख के ढेर पर सो जाती हूँ..
जागने को इक और सुबह
लिखने को इक और ग़ज़ल
बोने को इक और बीज
देखने को इक और ख्वाब
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