शनिवार, 1 सितंबर 2007

लड़का था एक विजय नाम का

लगता नहीं है कि इतने साल बीत गए,
मेरी यह रचना उस समय कि है जब में ग्यारहवी कक्षा में पढ़ती थी।






अपने अस्तित्त्व का श्रेय अपने जन्मदाता को देता हूँ,
परंतु अपनी योग्यता का श्रेय अपने शिक्षक को देता हूँ

कोई तेज़ हवा का झोंका जब साथ तुम्हें ले जाये
सही राह से मोड़े तुमको गलत रह भात्काये
ऐसे में जो हाथ पकड़ कर साथ तुम्हें ले आये
शिक्षक वही कहलाये सदा ही उचित राह दिखलाये

लड़का था एक विजय नाम का
जो था बिल्कुल नाकारा
कहने को बस नाम विजय था
हरदम लेकिन था हारा

कक्षा में पढने लिखने में लगता नहीं था उसका मॅन
शिक्षक शुभचिंतक सहपाठी लगते थे उसको दुश्मन

ऐसा नहीं कि नहीं समझ में उसको कुछ था आता
पर फिर भी वह कहता रहता समझ स्वयं को ज्ञाता..

पढ़ लिख कर के देखो तुम सब
जीवन में क्या पाओगे
समय यही है मजे मौज का
इसे bhi संग गंवोगे

हमने टोह अपने जीवाब में
उसूल यही अपनाया है
और भला पढने लिखने से
नवाब कोई बन पाया है??

सहसा इक दिन जब अध्यापक
कक्षा के अन्दर आये
उक्ति ऐसी सुन कर कानों
पर विश्वास ना कर पाए

है जिस बच्चे के अन्दर हर कार्य को करने कि क्षमता
उस बच्चे की जीवन में है कलुषित ये वैचारिकता??

कक्षा में तो कुछ ना बोले
पश्चात विजय को बुलवाया
और प्रेम से दया दृष्टि कर
उसको ये सब समझाया

देखो हमें एक जीवन में
मिलता है बस एक ही मौका
स्वयं सिद्ध ना बन पाया
जो भी ये मौका चूका

इस मौक़े को मत चूको
मत समाया को व्यर्थ गंवाओ
समय कभी ना वापस आता
आज जान ये जाओ

गलती अपनी आज ही समझो
कल तक जो रूक जाओगे
समय रेत सा फिसल जाएगा
तुम पीछे रह जाओगे

पछताने से तुम ही बोलो
क्या होगा तुमको हासिल
क्या जाने किस पाथ पर भटके
ना मिल पाएगी मंज़िल

बोला विजय कि उसे हो गया
अपनी गलती का एहसास
पूरी म्हणत से वो करेगा
अपनी क्षमताओं का विकास

अध्यापक बोले कि ग़र तुम
मुश्किल में खुद को पो
बिना डर और बिना झिझक के
मेरे पास चले आओ

करके अपनी बात यह पूरी
विजय के सिर पर रखा हाथ
माम्तामी थे वो अध्यापक
अनुशासनप्रिय होने के साथ

बस इस दिन से विजय ने बदले
अपने तौर तरीके
उसने आगे बडे के गुर
अध्यापक से सीखे

विजय था अब जान गया
सही गलत में अंतर
परीक्षा की तयारी
भी की थी उसने जम कर


अच्छे अंकों से आया था
वह कक्षा में अव्वल
अध्यापक के ही कारण थी
उसकी हर मुश्किल हल

बदले हुये विजय से अध्यापक को थी संतुष्टि
उसकी विजय ने कि थी अध्यापक के श्रम कि पुष्टि

विजय ने अब महसूस किया
क्या होता उसका हाल
अगर ना होते अध्यापक,
वह चलता टेढ़ी चाल

होती ना जो आपकी छाया
क्या मैं ये कर पाटा
गलत राह पर, पतन गर्त में
खुद ही गिरता जाता

आपकी आंखों में थी कबसे
निर्मल प्रेम कि छाया
मन में था सैलाब दया का
मैं थोडा ही पढ़ पाया

मेरे मन में बन बैठा है
आपका सबसे उंचा स्थान
आपके धीरज ने रखा
मेरे हर ध्येय का ध्यान

हल हर मुश्किल को करने
थे आप हमेशा तत्पर
भूल ना पाउँगा जीवन भर
ये एहसान है मुझपर

हर रिश्ते से ऊपर है ये
गुरू शिष्य का नाता
मेरी हर उपलब्धि का है
श्रेय आपको जाता

अपनी उपलब्धि को तुम
नहीं समझना कोई कर्ज़
लाना तुमको सही राह पर,
मेरा था यह केवल फ़र्ज़

जीवन की अगली राहों में
आगे को जब जाना
अटल ही रहना उद्देश्यों में
कभी ना डगमगाना

फ़र्ज़ ये मेरा अब है तुम्हारा
इसे है तुम्हें निभाना
और किसी भूले भटके को
सही राह दिखलाना॥