सोमवार, 31 मार्च 2008

अंतराल

कुछ रंग थे मैंने इन पलकों पर सजाये थे..
कुछ थे परिंदे, नींदों में हमने भी उड़ाए थे..
कुछ सपने भी थे, जिनको दिन और रात का भान नहीं..
कुछ राग थे, अपने से पर पराये थे..

रंगों से सजी उन पलकों पर,कोई दस्तक दे कर जाता था..
श्वेत श्याम परिंदों का, उन नींदों से कुछ नाता था..
उन सपनों की क्या बात कहें,जो हर सुकून से बढ़ कर थे..
उन रागों को सुन करके ,जग बैरागी हो जाता था..

समय गया कुछ बीत,
कुछ सालों की हो बात चली,
हम जिनकी आहट सुनते थे,
आंखें उनकी जौ बाट चली

अब शब्द सभी ही नीरस हो,रातों को शोर मचाते थे..
कानों में रहते सन्नाटे,बिरहन का गीत सुनते थे..

था अनंत सा कष्ट रहा वह कहर बना...
फ़िर असीम वो आस मिला कर ज़हर बना..
बिखरे से एहसास जुटा दोपहर बना..
अनदेखे जज़्बात सुना वो सेहर बना

दस्तक वो सुनने को हम फ़िर तरस गए. .
सपने जो थे अश्रु बन कर बरस गए..
भटके थे हम पाने उनके दरस गए...
ऐसे तरसे जाने कितने बरस गए...

अब फ़िर झालर है पलकों पर कुछ ख्वाबों की..
अब फ़िर से आस है हमको उन बरसातों की..
अब फ़िर से देखो गाने को जी करता है..
बिखरी है चहुँ और छटा उन रागों की॥