एक और धमाका कुछ मौतें और धू धू कर के जलते घर
एक और तमाशा बंदूकें -बम तलवारें और कटते सर
दृश्य पटल पर रंग बदलता है भगवा तो कभी हरा
रंग परंतु लाल लहू का नहीं बदलता कभी ज़रा
कहाँ गया वो जो धी क्करा करता था.. हाँ अंतरमंन
कहाँ गया ईमान धर्म और सुप्त हो चली हर धड़कन
नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे तख़्त ओ ताज बनेंगे
नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे किस पर राज करेंगे
दहशत की आँधी में या फिर गर्दिश के अंगारों में
कर्म भूमि या रणणभूमि में गोली की बौछारों में
लाचरों मासूमो अन्जानों ने अपनी बलि जहाँ दी
मैने भी अपनी एक कविता, इस हिंसा को भेंट चढ़ा दी
भेंट चढ़ाई थी इस आशा में की होगा कुछ बदलाव
पर इतने बलिदानों में , छोटी इस कविता का क्या है भाव
हिंसा जो कल तक बस ज़र्रा थी, अब वसुंधरा व्योम हो चली
हिंसा के इस महा य ज्ञान में ये कविता भी होम हो चली
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