बुधवार, 31 जनवरी 2007

फिर..

 फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की
बेड़ियों को तोड़ आगे बढ़ चला चंचल ये मन 
फिर अचानक साँझ लौटी सुरमई संगीत की...
फिर चली हूँ पूर्ण करने श्रीखलाएं गीत की..

मिल गया विराम जो अविराम चलते द्वंद्व को
उड़ी फिर तितली रिझाने पुष्प को मकरंद को
मिली फिर शब्दावली मेरे निराले छ्अंद को
कर चली जादू सभी पर ये ऋतु फिर शीत की..

गूँजती हैं फिर किलोलें कोयलों की बाग में
गा रही जैसे ताराने फिर नये इक राग में
पा चली विधि से ये वार जैसे वो अपने भाग में
आँख मूंदें और पा लें ्छ्वी अपने मीत की

बाही फिर धारएं अविरल हर तरफ़ उल्लास की
जी उठी फिर हरित हो कर शुष्क डाली पास की
ख़त्म हो गई जो अवधि राम के वनवास की
मिल गई जैसे हो सीता आस्था में प्रीत की..

 

धुआँ

कहाँ से ये धुआँ
उठता है इस वीराने में
मैने ना जाना
बस सोचती रहती हूँ हरदम
कि इसकी वजह क्या है ...

पास की भट्टी की दहक ??
पर उसे बुझे तो बरसों बीत गये
नज़दीक की बस्ती में लगी आग??
पर उसे तो लोग परसों रीत गये

पड़ोस के घर का चूल्हा?
पर वो कब ही का बुझ चुका..
बगल में पड़ी अंगीठी??
पर उसका ईंधन तो कब का फूँक चुका..

फिर कहाँ से उठता है धुआँ इस वीराने में
सोचो ज़रा कि इसकी वजह क्या है

हिंसा को सप्रेम...

एक और धमाका कुछ मौतें और धू धू कर के जलते घर

एक और तमाशा बंदूकें -बम तलवारें और कटते सर



दृश्य पटल पर रंग बदलता है भगवा तो कभी हरा

रंग परंतु लाल लहू का नहीं बदलता कभी ज़रा



कहाँ गया वो जो धी क्करा करता था.. हाँ अंतरमंन

कहाँ गया ईमान धर्म और सुप्त हो चली हर धड़कन

नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे तख़्त ओ ताज बनेंगे

नहीं रहा जब जीवित कोई , कैसे किस पर राज करेंगे



दहशत की आँधी में या फिर गर्दिश के अंगारों में

कर्म भूमि या रणणभूमि में गोली की बौछारों में

लाचरों मासूमो अन्जानों ने अपनी बलि जहाँ दी

मैने भी अपनी एक कविता, इस हिंसा को भेंट चढ़ा दी



भेंट चढ़ाई थी इस आशा में की होगा कुछ बदलाव

पर इतने बलिदानों में , छोटी इस कविता का क्या है भाव



हिंसा जो कल तक बस ज़र्रा थी, अब वसुंधरा व्योम हो चली

हिंसा के इस महा य ज्ञान में ये कविता भी होम हो चली



 

बहुत कुछ करने के सिवा; बहुत कुछ करने के लिये

सोचते हो क्या है करना अब हमें रह कर यहाँ

और बहुत काम हैं ज़िंदगी जीने के सिवा

और बहुत काम हैं इस दौर में करने के लिए...



रो के तो करता हर कोई ग़म अपना यूँ ही बयान

और बहुत काम हैं छुप छुप के यूँ रोने के सिवा

बहाने हैं बहुत ग़म छोड़ के हँसने के लिए..



ढूंढते हो मिट गये से ख़ुद के क़दमों के निशां?

और बहुत काम हैं यूँ राह भटकने के सिवा..

तरीक़े हैं बहुत मंज़िल को पहुँचने के लिए..



क्यूं तुम्हें अनजान पराई भीड़ सा लगता जहाँ..

और बहुत काम हैं अकेले यूँ ही रहने के सिवा

रास्ते हैं बहुत अपनों को खोजने के लिए..



 

ए ज़िंदगी तू ही बता ...

जिसे पाने उमर भर, तरसती रही है नज़र

दिखला के बस इक झलक,यों झपकते ही पलक

क्यूं हो जाता है जुदा...

ए ज़िंदगी तू ही बता...



फिर नयी रातें हैं , नये सपनों की बातें हैं

लगता है जो कुछ अपना, उन्हीं सपनों में एक सपना..

क्यूं है तड़क कर टूटता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...





खा कर रहम नसीब, आ कर ज़रा क़रीब, देता है एक पल का सुख..

पर अगले पल तो है फिर दुख

ऐसी क्या हुई है मुझसे ख़ता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...





सपने भी हैं और चाह भी मंज़िल भी है और राह भी..

आगे बढ़ के एक क़दम, पाँव क्यूं जाते हैं थाम

मुझे ख़ुद भी नहीं है पता..

ए ज़िंदगी तू ही बता...



 

ख़ौफ़..

 है हक़ीक़त है मुझे ख़ौफ़ तुझे खो ना दूं..
हमसफ़र बन के हर सफ़र में सदा तू चलना..

हमसफ़र भी यूँ ही होते हैं कभी साहिल पे
तन्हा तूफ़ा में हमें छोड़ के आ ज़ाए तो
मिन्नत ये है की हमसफ़र ना बनना तू..
बन के साया ही खुदाया संग में तू चलना..

वक़्त हम पे अगर ऐसा भी कभी आए तो
राह में छोड़ के साया भी चला जाए तो..
गुज़ारिश है ना बनना तू कभी हम साया
धड़कनें बन के मेरे दिल में सदा तू रहना..

दिल भी दिल है इसे भी मौत कभी आएगी..
धड़कनें मेरी किसी पल तो थम ही जाएँगी..

काश ऐसा हो मेरा ख़ौफ़ ही खो जाए कहीं
खो जाए यही ख़ौफ़ तुझे खो ना दूं...


अध्याय

लो बीत गया एक संपूर्ण अध्याय

चौदह वर्ष तक जो निरंतर किया

अब कभी नहीं करेंगे फिर..

अलसाई सुबहों में ख़ुद को ढालना..

बस्ते के बोझ दबी सयकले घसीटना

घंटी की आवाज़ सुन क़तारों में खड़े हो जाना..

झाँकना वो प्रार्थना के लिए बंद आँखों से..



मुझे दे दो..



मुझे वापस दे दो मेरा स्कूल..

मुझे दिला दो वो बीते साल..

वो प्रार्थना सभायें ,गीत , सुर, ताल..



क्या लौटा सकते हो वो पल?

शायद नहीं..

कभी नहीं..



बीते क्षण लौट कर आ भी तो नहीं सकते..

हाँ यादों में ज़िंदा तो रह सकते हैं वे



मुझे याद है अब भी स्कूल का वो पहला दिन ..

जब मैने अपने आप को इस नई जगह पाया

इसे जाना और साथ ही सीखा स्वयं को पहचानना

और मेरी पहचान का एक महत्वपूर्ण भाग बन गया यह

और अब इसी पहचान को साथ ले..

एक और पहचान की खोज में

इसे छोड़ के जाना है



क्या हुआ जो बीत गया एक अध्याय.. एक शुरू भी तो हुआ है

हुआ है ना...