रविवार, 18 फ़रवरी 2007
जा रही रवि की सवारी..
किरण राथ धुंधला पड़ा है
नभ ज्यों तारों से जडा है
इसी नभ की स्वर्ण आभा पर रजत अब पड़ी भारी
जा रही रवि की सवारी
पाने को जो खड़े थे सुख
अब खड़े हैं फेर के मुख
भूल कर इस ही रवि की आरती भी थी उतारी
जा रही रवि की सवारी
लो गमन का अब समय है
किंतु ये होना भी तय है
सुबह आने को पड़ी है रात कारी अब ये सारी
जा रही रवि की सवारी
This poem is inspired from
aa rahi ravi ki savari..
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2 टिप्पणियां:
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