बुधवार, 12 नवंबर 2008

हर रोज़

हर रोज़ शुरू करती हूँ एक नई ग़ज़ल..
और छोड़ देती हूँ उसे अधूरा
कोरे पन्नों के बियाबाँ में
जहाँ वोः बढ़ना चाहे तो ख़ुद में सिमट कर रह जाए

एक बीज बोती हूँ धरती का सीना चीर कर
और छोड़ देती हूँ उसे अकेला
जहाँ न खाद न पानी हो,
हो तो बस चिलचिलाती धूप और धूल और धुंआ

एक ख्वाब देखती हूँ और आँख खोल लेती हूँ
तोड़ देती हूँ उसे ख़ुद ही
और फेंक देती हूँ उसे कूडे के ढेर पर
जहाँ उसे कोई पहचान न पाये

एक तीली जलाती हूँ माचिस की
और दे देती हूँ उसे सब कुछ
चिंगारी बढ़ कर लपटें बन
भस्म कर देती हैं...
कुछ अधूरी गज़लें..
कुछ अधफूटे कोंपल..
और टूटे हुए ख्वाबों के टुकड़े..

और फ़िर राख के ढेर पर सो जाती हूँ..
जागने को इक और सुबह
लिखने को इक और ग़ज़ल
बोने को इक और बीज
देखने को इक और ख्वाब

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