मंगलवार, 18 नवंबर 2008

वापसी

खिज़ा में सूख बैठा कल चमन था बाग जो सारा
बहारों के जो फ़िर मौसम अगर लौटे तो क्या लौटे..
सभी कुछ हार बैठे ज़िन्दगी के खेल में जब हम
मौके जो ले के ग़म अगर लौटे तो क्या लौटे..
मिटाया वक्त ने जो कुछ लिखा था शक्ल पर मेरी..
नई सूरत को ले कर हम अगर लौटे तो क्या लौटे
झुका करती थीं पलकें सिर्फ़ जिनके नाम को सुन कर..
दर पे यूँ उनके बेशरम लौटे तो क्या लौटे ॥
कहानी लिख ही डाली जब तलक किस्मत ने पूरी ये
खुदाया नई ले कर तब कलम लौटे तो क्या लौटे..
बोटियाँ नोच डाली जहाँ श्वानों-चील-कौवों ने,
लगाने तुम वहाँ मरहम अगर लौटे तो क्या लौटे॥
लौटे थे जिनको ढूँढने को साथ लेने हम ,
किसी के हो चुके हमदम अगर लौटे तो क्या लौटे॥
पुकारा जिन्हें हमने ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी कह के,
मनाने वो मेरा मातम अगर लौटे तो क्या लौटे


4 टिप्‍पणियां:

adil farsi ने कहा…

acchi gazal hai

Pradip ने कहा…

सुंदर रचनायें...
काफी दिनों बाद मौलिक और संवेदनशील सृजनात्मकता का समन्वय दिखा.
परन्तु एक बात खटकी, और वो यह है के आपकी सारी रचनायें मुझे एक रंग से अत्यन्त प्रभावित दिखी.
जीवन में काफी रंग है... उन्हें भी तलाशिये...
मुझे विश्वास है आप अच्छा करेंगे.

साभार,
प्रदीप

सुभाष नीरव ने कहा…

सुन्दर लिखती हैं रुचिरा जी। इस लेखन की तड़प को जिन्दा रखे अपने भीतर, नि:संदेह भविष्य में आने वाली रचनाओं में और अधिक गहराई और निखार आता चला जाएगा। मेरी शुभकामनाएं !

Unknown ने कहा…

Bahut khup Sir g