
बिन फुरसत की दौड़ भाग में,
कुछ दिल से भी काम लें,
आओ ज़रा इक जाल बिछा कर..
लम्हों को हम थाम लें..
रात के झिलमिल सन्नाटे में,
दिन की बातों का शोर न हो..
जलती हो जो राग द्वेष में,
ऐसी सुलगी भोर न हो..
मीठी यादें याद करें..
और कुछ अपनों के नाम लें..
आओ ज़रा इक जाल बिछा कर,
लम्हों को हम थाम लें..
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शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती कि कितनी खुशी हुई आप सब कि टिप्पणियाँ पढ़ कर।
एक अरसे से लिख रही हूँ, कुछ ग्यारह साल से संग्रह भी किया है अपनी रचनाओं का, परन्तु, कभी भी इस तरह दूसरे कवियों के विचार नहीं सुने अपनी कविता के ऊपर।
निश्चय ही यह एक नई शुरुआत है।
आप सब से अनुरोध है, आगे भी इसी प्रकार मेरे लेखन को प्रोत्साहित करते रहें।
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मैं एक छायाचित्रकार डिजिटल कलाकार भी हूँ
आप चाहें तोह flickr पर मेरा काम देख सकते हैं
खासकर मेरे चित्र और कविता संमिश्रित प्रयोग :-

समय समय पर अपनी कविताएँ, इसी चिट्ठे पर प्रकाशित करती रहूंगी।
साभार,
रुचिरा परिहार